संघर्ष, संस्कार और सपनों से रची एक परिवार की ऐसी कहानी, जो वर्दी को केवल नौकरी नहीं, पीढ़ियों का गौरव बना गई।
रीवा।
कुछ सपने बंद आंखों में नहीं पलते… वे तपते सूरज के नीचे, थाने की चिलचिलाती दीवारों के बीच, कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ उठाए… जागी हुई आंखों से बुने जाते हैं।
पाठक जी का सपना भी कुछ ऐसा ही था बेटा अफसर बने, और एक दिन उसे सैल्यूट करूं। शायद यह ख्वाब किसी और के लिए एक छोटी सी कल्पना हो, पर एक सिपाही के लिए यह किसी एवरेस्ट से कम नहीं था। जिसने वर्दी पहनकर जवानियां गुज़ारीं, जो डांट सुनता रहा, ड्यूटी में खड़ा रहा, भीगता रहा पर कभी आशा की लौ बुझने नहीं दी और फिर समय ने वही लिखा जो पसीने ने इबारत की तरह तराशा था।

बेटा राजीव जो बचपन से बड़ा नटखट था DSP बना। बहू हिमाली DSP मिली,दूसरा बच्चा और बच्ची होनहार निकल गए घर का सपना नहीं, पूरा परिवार ही मिसाल बन गया। रिटायरमेंट वाले दिन जब वह पिता अपने ही आंगन में खड़ा था,तो उस दिन की तस्वीर इतिहास बन गई जहां बेटे-बहू ने पूर्ण वर्दी में अपने पिता को सैल्यूट कर सम्मान का वो पर्व रचा, जो ओहदे से नहीं, संस्कार और संघर्ष से जन्मा था।
यह केवल एक दृश्य नहीं था यह उस भाव का प्रतीक था जहां सम्मान पद से नहीं, परिश्रम से मिलता है। हां, वर्दी एक पीढ़ी का सपना होती है, और संघर्ष उसकी नींव।आज यह परिवार केवल अपनी उपलब्धियों के लिए नहीं,बल्कि उन मूल्यों के लिए आदर्श है जो पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ खून से नहीं,संस्कारों से आगे बढ़ते हैं।
ऐसे माता-पिता को कोटिशः प्रणाम।
जिन्होंने वर्दी को केवल नौकरी नहीं, एक पीढ़ी का गौरव बना दिया।


