रीवा।
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय में इस साल पीएचडी प्रवेश परीक्षा ने ऐसा भूचाल लाया कि वर्षों से चल रहा डॉक्टरेट व्यापार औंधे मुंह गिर पड़ा। विश्वविद्यालय ने इस नई व्यवस्था के साथ परीक्षा कराई जिससे उन लोगों के मंसूबों पर पानी फिर गया जो पीएचडी को शिक्षा नहीं बल्कि लाभदायक कारोबार समझ बैठे थे।

डॉक्टर बनाने की फैक्ट्री बंद
सूत्र बताते हैं कि पिछले कई वर्षों से डिग्री दो पैसा लो वाले गोरखधंधे का बाजार खूब गर्म था। 25 से 30 लाख तक का सौदा। कॉपी लिखने से लेकर डिग्री दिलाने तक की होम डिलीवरी।
पढ़ाई बेरोजगार….पैसा रोजगार
यानी नेट पेट की नहीं, कैश की मेरिट चलती थी। छात्र भी खुश न पढ़ाई न शोध… बस कैप, गाउन पहनकर डॉक्टर साहब बन जाइए।
पर्दे के पीछे का शिक्षाविद
विश्वविद्यालय सूत्रों का दावा है कि इस नेटवर्क की कमान एक ऐसे प्रभारी शिक्षाविद के हाथ में थी, जिनकी महत्वाकांक्षा डिग्री से ज्यादा राजनीति में डॉक्टर बनाने की है। उनकी कार्यशैली किसी भी विचारधारा की नाव हो… बस गंतव्य तक पहुंचाना चाहिए।
संघ, संगठन, सत्ता, विपक्ष किसने उन्हें कब सहारा दिया इसकी रफ्तार पकड़ना मुश्किल। लेकिन नाम आते ही… शिक्षा जगत के लोग मुस्कुरा देते हैं।
धंधा चौपट तो आग-बबूला
इस साल परीक्षा ईमानदारी से हो गई, तो कारोबारियों को गहरी चोट लगी। जो कल तक फीस लिस्ट में रिसर्च गाइड थे, आज आंदोलन के गाइड बन रहे हैं। विश्वविद्यालय बदनाम करो, छात्रों को भड़काओ, सिस्टम गलत का शोर मचाओ क्योंकि जहां से रोटी मिलती थी, उसी चूल्हे में आग लगानी पड़े… तो लगाओ।
पढ़ने नहीं, केवल डॉ. लिखने का जुनून, छात्रों का भी हाल यही पढ़ेगा इंडिया? नहीं …. डॉक्टर बनेगा इंडिया
शीशे के घर, हाथ में पत्थर
विश्वविद्यालय प्रशासन ने मामले की पूरी रिपोर्ट राज्यपाल और उच्च शिक्षा मंत्री तक भेजने की तैयारी कर रही है। अब सबकी निगाह यही, कौन सामने आता है, और कौन छिप जाता है। और अंत में अगर यह धंधा बंद न हुआ होता तो आने वाले वर्षों में शोधग्रंथ नहीं… रेट लिस्ट प्रकाशित होती और शिक्षा नहीं… शोषण उच्च शिक्षा का मॉडल बन जाता।
आगे भी मध्यप्रदेश जनसत्ता को देखते रहे।


