मध्यप्रदेश में अब आरक्षण पर राजनीति का आरक्षण शुरू हो गया है। ओबीसी को 27% आरक्षण मिले या न मिले, लेकिन नेताजी 100% राजनीतिक लाभ लेना नहीं भूलेंगे। सत्ता हो या विपक्ष इस बार दोनों के चेहरों पर मुस्कान कुछ ज्यादा ही गहरी है, जैसे कोई बच्चा बिना होमवर्क किए भी A+ ले आए।

अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। लेकिन यहां क्रिकेट नहीं, संवैधानिक कबड्डी चल रही है।
23 सितंबर से सुनवाई है, लेकिन पिच अब से गरम है। 10 सितंबर तक दोनों दलों के वकील साझा रणनीति बनाएंगे। ….मतलब विपक्ष और सत्ता साथ बैठकर तय करेंगे कि जनता को किस एंगल से बेवकूफ बनाया जाए ताकि वोट भी मिले और विरोध भी न हो।
नेताओं की यह ‘संवेदनशीलता’ इतनी सुंदर लग रही है कि शायर भी शरमा जाए।
सीएम हाउस में सर्वदलीय बैठक सजी, जैसे कोई शादी में बाराती हो लेकिन दूल्हा कौन है किसी को नहीं पता। भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा सभी पहुंचे कुर्सी पर बैठते समय सबको एक बात याद थी: कैमरा ऑन है।
दरबार ऐसा सजा कि लगा जैसे स्वतंत्रता दिवस की कोई पूर्व संध्या हो। सबकी आवाज़ में दर्द, पर चेहरों पर वोटों की मिठास दिख रही थी। हम ओबीसी के लिए लड़े हैं। यह डायलॉग हर पार्टी के पास है। अब फर्क बस आवाज और एक्टिंग में है।
अब सवाल यह है, 27% ओबीसी + 36% SC-ST + 10% EWS = 73% तो फिर वह 50% की संवैधानिक दीवार कौन फांदेगा?
अगर फांदेगा तो क्या आपके पास ऐसा डेटा है जो बताए कि ओबीसी के हालात इतने खराब हैं कि 50% सीमा तोड़ी जा सकती है?
लेकिन नेताओं को क्या फर्क पड़ता है। डेटा हो या नहीं, भावना होनी चाहिए। क्योंकि अदालत में सुनवाई होती है तथ्य पर, लेकिन जनता में सुनवाई होती है भावना पर और नेता हमेशा जानते हैं कि वोट डेटा से नहीं, ड्रामा से मिलते हैं।
सुप्रीम कोर्ट को फर्क नहीं पड़ता कि CM हाउस में कौन बैठा था। फर्क इस बात से पड़ता है कि संविधान क्या कहता है, लेकिन हमारे नेताओं को फर्क इस बात से पड़ता है कि अखबार क्या कहेगा और कैमरा क्या दिखाएगा।
अब देखना ये है कि सुप्रीम कोर्ट इस पटकथा का क्लाइमेक्स कैसे लिखता है। जनता तो फिलहाल popcorn लेकर बैठी है। स्टेज सजा है, एक्शन चालू है, पर्दा बस उठने वाला है।


