शिल्पकार की ने कहा अब मुनाफे में नहीं जज्बे में जीते हैं
रीवा।
गणेशोत्सव और नवरात्रि सीजन आते ही शहर की गलियों और झोपड़ियों के अंदरूनी कोनों में फिर से जीवन धड़कने लगता है मिट्टी के ढेर, रंगों की डिब्बियां, और महीन कंघियों से उभरती देवताओं की मूर्तियां। लेकिन यह सुनहरी छवि अब एक सच्चाई से जूझ रही है। शिल्पकार कहते हैं साहब इस मंहगाई के दौर में मुनाफे में जज्बे में जी रहा हूं। पुरखों की विरासत को बचाकर रखा हूं।
रीवा के परंपरागत शिल्पकार जिनकी पहचान कभी पूरे विंध्य अंचल में थी आज सिर्फ तीन महीने की रोज़ी और बारह महीने की चिंता के साथ जी रहे हैं। अभी कुछ ही दिन पहले तक गणेश प्रतिमाओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था। अब दुर्गा प्रतिमाएं बन रही हैं। लेकिन मूर्ति बनाना अब पहले जैसा धंधा नहीं रहा।
क्या कहते है मूर्ति बनाने वाले
शिल्पकार मुन्ना भाई और विजय जो रीवा के हैं बताते है कि अब अब वो मुनाफा नहीं रहा साहब जो पहले था। माटी महंगी हो गई है। पेंट महंगा हो गया है। ऊपर से पीओपी की सस्ते दामों में ज्यादा मूर्ति बनाई जाती हैं और बाजार हमसे छिन लेते हैं। वे कहते हैं
हम पुरखों की विरासत छोड़ नहीं सकते। ये कला हमारी पूजा है पेशा नहीं। केवल यह व्यापार तीन माह को होता है इसके बाद अपने अन्य पारंपरिक काम में लगकर परिवार पालते है। इसी तरह से कलकत्ता के शिल्पकार बप्पा पाल एवं गौतम चटर्जी ने बताया कि मिटटी भी अब बहुत महगी हो गई है। अन्य सामाग्री पर भी महगाई की मार है। मुनाफा वहीं रोज की मजदूरी निकलती है। इन शिल्पकारों ने बताया बीस लोग मिलकर डेढ़ से दो सौ मूर्ति बमुश्किल से बन पाती है।
कहीं एक चुप्पी भी है कि अब ये धंधा कब तक चलेगा
शहर की गलियों में कुछ झोपड़ियां, छतों पर तिरपाल और छोटे छोटे प्लास्टिक के टेंट यहीं बैठकर दिनभर अंगुलियों से देवियां गढ़ी जाती हैं। कोई आंख बना रहा है कोई मुकुट, कहीं न कहीं एक चुप्पी भी है कि अब ये धंधा कब तक चलेगा।
त्योहार बीतते ही ये शिल्पकार फेंसिंग, राजमिस्त्री, पेटिंग, टीनशेड लगाने या प्लास्टिक कवर बेचने जैसे कामों में लग जाते हैं। कला अब उनके लिए रोजगार नहीं बची सीजनल सर्वाइवल टूल बन गई है।
संकट में पारंपरिक शिल्प
मिट्टी से बनी मूर्तियां शुद्धता और भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक मानी जाती हैं। लेकिन अब बाजार में पीओपी की मूर्तियां बड़ी मात्रा में आ गई हैं। ये हल्की होती हैं जल्दी बनती हैं। सजावटी दिखती हैं और सस्ती भी। नतीजा ये कि पारंपरिक मूर्तियों का बाजार सिकुड़ता जा रहा है। शिल्पकार कहते हैं मिट्टी में समय लगता है मेहनत लगती है। मगर लोग जल्दी और सस्ती मूर्ति ले जाते हैं। अब हम बाजार से नहीं अपने अस्तित्व से लड़ रहे हैं।
सलाम इन हाथों को जो देवियों को गढ़ते हैं
इन हाथों में कला है, संस्कार है तप है। वे मूर्तियां बनाते हैं, मगर खुद की जिंदगी अब भी अधूरी गढ़ी हुई है। बावजूद इसके कोई शिकायत नहीं कोई हताशा नहीं। बस एक जिद है कि पुरखों की कला को बचाए रखना है।


