रीवा।
जर्मनी, अमेरिका, नेपाल,थाईलैंड तक भेजी जाने वाली सुपाड़ी की कला अब सुविधा के अभाव में विलुप्त होेने के कगार पर, इसे बचाने आगे आना होगा।
कभी एक छोटी सी सुपाड़ी को तराशकर भगवान की मूर्ति बना देना कला मानी जाती थी और इस कला का गढ़ था रीवा और कलाकारी दिखाने वाले राम सिया कुंदेर । यहां के कलाकारों ने अपनी उंगलियों की नोक से न केवल मूर्तियां गढ़ीं बल्कि भारत की शिल्प परंपरा को अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुँचाया। लेकिन आज यही कला अपने अंतिम समय से जूझ रही है।
1968 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया था
रामसिया कुंदेर फोर्टरोड रीवा को इसी सुपाड़ी की कला के लिए 1968 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया था। उन्होंने सुपाड़ी से भगवान राम, लक्ष्मण, सीता, गणेश, कृष्ण जैसी मूर्तियों के साथ-साथ साज-सज्जा की वस्तुएं और उपहार बनाने की कला में महारत हासिल की थी। उनके बनाए हुए शिल्प जर्मनी, अमेरिका, नेपाल, थाईलैंड तक भेजे गए। पर अब उनकी चौथी पीढ़ी के अभिषेक कुंदेर आज इस विरासत को जीवित रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन आर्थिक दबाव, बढ़ती महंगाईए और सरकारी उपेक्षा के कारण उनके पास न कोई संसाधन है न ही कोई मंच।
उन्होने कहा कि हमारी कला सिर्फ तब याद की जाती है जब किसी को अनोखा उपहार बनवाना होता है। न स्थायी बाजार है न ट्रेनिंग सेंटर न कोई सरकारी मदद। अगर अब भी सरकार नहीं जागी तो अगली पीढ़ी में ये कला खत्म हो जाएगी।
15 साल की उम्र में सीख गया अभिषेक।
आज भी स्वं रामसिया कुंदेर के पोते अभिषेक रोज 8-10 घंटे बैठकर सुपाड़ी तराशते हैं। एक मूर्ति या खिलौना बनाने में 2ण्से 3 दिन लगते हैं।उन्होने बताया कि दादा स्वं रामसिया के बाद उनके पिता रामसिया को भी इस कला का अच्छा अभ्यास हुआ। उन्ही को सुपाड़ी के भगवान और अन्य चीजें बनाते हुए देखकर अभिषेक भी कारीगर हो गया।

अभिषेक ने बताया कि पिता अब बुजुर्ग हो गए हैं। फिर भी थोड़ा बहुत काम करते है। भाई प्रदीप और यश भी सुपाड़ी की कला को आगे बढ़ा रहे है।
कलाकारों की मांग
- सुपाड़ी कला को राजकीय हस्तशिल्प मान्यता दी जाए।
- स्थायी बिक्री केंद्र हर जिलें में खोले जाएं।
- प्रशिक्षण केंद्र खोले जाएं ताकि युवा इसे सीखेंए हम लोग प्रशिक्षण देने तैयार हैं।
- कला मेलों और प्रदर्शनियों में प्रतिनिधित्व मिले।
अभिषेक के सामने सबसे बड़ा सवाल
उन्होने कहा क्या वे अपने बच्चों को इस कला में लगाए या किसी दुकान में सेल्समैन बना दें। अगर सरकार समाज और शिल्पप्रेमी अब भी नहीं जागे तो रामसिया कुंदेर की सुपाड़ी कला कुछ सालों बाद केवल किताबोंए फाइलों और अफसरों की भाषणबाजी में रह जाएगी।


