रीवा, मध्यप्रदेश | विशेष रिपोर्ट
रीवा जिले से करीब 65 किलोमीटर दूर, सेमरिया क्षेत्र के ककरेड़ी जंगल में छिपा है एक अद्भुत ऐतिहासिक और पुरातात्विक खजाना, जो आज भी अपने संरक्षण की बाट जोह रहा है। हज़ारों वर्षों पुराने शैल चित्र, बावड़ियां और खंडित मूर्तियां इस बात की गवाही देती हैं कि यह इलाका कभी एक समृद्ध और विकसित मानव बस्ती रहा होगा।
शैल चित्र: पाषाण युग की झलक
ककरेड़ी के जंगल में प्रवेश करते ही घने वृक्षों और ऊँची पहाड़ियों के बीच, लाल रंग में हाथ से उकेरे गए शैल चित्र दिखाई देते हैं। ये चित्र हाथियों, घोड़ों, ऊंटों, तीर-कमान, और विभिन्न प्राचीन औजारों के हैं। कुछ चित्रों में शिकार करते इंसान, दौड़ती लोमड़ियां और हिरण जैसे दृश्य जीवंत हो उठते हैं। ये चित्र न सिर्फ कला का अद्भुत उदाहरण हैं बल्कि पाषाण युग की जीवनशैली और संस्कृति की झलक भी प्रस्तुत करते हैं।

बावड़ियां: जल संरक्षण का प्रमाण
ककरेड़ी जंगल में करीब 384 बावड़ियों के होने की बात स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं, जिनमें से सैकड़ों आज भी मौजूद हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि गर्मियों की चिलचिलाती धूप में भी इनमें से अधिकांश बावड़ियों में पानी मौजूद रहता है, जो वन्यजीवों के लिए जीवनदायिनी भूमिका निभा रहा है। compartment P-157 में स्थित इन बावड़ियों के समीप वन विभाग ने एक मिनी डैम भी बनवाया है, जिससे वन्य जीवन को संबल मिलता है।
मूर्तियों के खंडित अवशेष और संभावित नगर के प्रमाण
जंगल के ऊँचे टीलों और तराशे गए पत्थरों के बीच देवी-देवताओं की खंडित मूर्तियां भी देखने को मिलती हैं। इन अवशेषों को देखकर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्थान कभी एक समृद्ध बस्ती रहा होगा। सफेद, भूरा और काले रंग के पत्थरों पर की गई शिल्पकारी अद्वितीय है।
पुरातत्व विभाग की उदासीनता
पुरातत्व विभाग द्वारा इन शैल चित्रों, मूर्तियों और बावड़ियों का निरीक्षण कर संरक्षण प्रस्ताव भी बनाए गए, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अब तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो सकी है। वन विभाग के अधिकारी जरूर समय-समय पर इन स्थलों का निरीक्षण करते हैं, परन्तु संरक्षित स्मारक घोषित किए बिना इस धरोहर को बचा पाना कठिन प्रतीत होता है।
आल्हा-उदल और ककरेड़ी का ऐतिहासिक संबंध
स्थानीय बुजुर्ग, 90 वर्षीय रामलाल आदिवासी और भूरा कोल बताते हैं कि ककरेड़ी कभी 10वीं–11वीं सदी में कौशांबी की तरह एक उपनगर हुआ करता था। यहां त्रिपुरी के कलचुरी और चंदेल वंशों का प्रभाव था। बताया जाता है कि यहां एक दुर्ग था और उसका परकोटा आठ मील लंबा था। इस दुर्ग का मुख्य प्रवेश द्वार “आल्हा दरवाजा” के नाम से जाना जाता था। यही वजह है कि इस इलाके को वीर योद्धाओं आल्हा-उदल के इतिहास से भी जोड़ा जाता है।
ककरेड़ी का जंगल सिर्फ जैव विविधता का केंद्र नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का एक जीवंत प्रमाण है। शैल चित्रों, बावड़ियों और मूर्तियों के ये अवशेष हमें हमारे अतीत से जोड़ते हैं। आवश्यकता है तो सिर्फ संवेदनशीलता और संरक्षण की, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस गौरवशाली अतीत से परिचित हो सकें।


