स्मृति शेष श्रीनिवास तिवारी एक युग, एक व्यक्तित्व, एक इतिहास
यूँ ही कोई जननायक नहीं बनता। राजनीति में लाखों आते हैं, हजारों टिकते हैं, सैकड़ों पद पाते हैं पर कोई विरला ही होता है जो लोक की चेतना में किंवदंती बनकर बसता है। श्रीनिवास तिवारी ऐसे ही विरल व्यक्तित्व थे, जो रीवा से निकलकर दिल्ली तक दंतकथाओं के नायक बने।
आज जब हम उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद कर रहे हैं, तो स्मृतियों के सागर में डूबते उतराते वही चेहरा सामने आता है सख्त, सुलझा हुआ, अनुशासन में लिपटा, और राजनीति के हर दांव-पेंच का मर्मज्ञ।

राजनीति नहीं, उनके लिए तपस्या थी
तिवारी जी राजनीति करते नहीं थे, वे उसे जीते थे। राजनीति उनके लिए ‘सत्ता का साधन’ नहीं, ‘जनता की साधना’ थी। जीत और हार से ऊपर उठकर उन्होंने बार-बार साबित किया कि चुनावी परिणाम व्यक्ति की ऊंचाई तय नहीं करते, उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता और जन जन के प्रति उत्तरदायित्व ही असली कसौटी है।
कांग्रेस में रहकर भी वे समाजवादी बिरादरी के नेता माने जाते थे। समाजवाद, गाँधीवाद, मार्क्सवाद जैसे वादों में बंधे बिना वे जनवाद के प्रवर्तक थे। उनका एकमात्र आदर्श था जनता, और उनका एकमात्र धर्म था जनसेवा।
विरोध में भी संवाद, राजनीति में भी मर्यादा
अर्जुन सिंह से उनके रिश्ते हों या दिग्विजय सिंह से गठजोड़, तिवारी जी ने विरोध के भीतर भी संवाद बनाए रखा। वे कहा करते थे प्रतिद्वंद्विता में संवादहीनता स्थायी दुश्मनी को जन्म देती है। यही वजह थी कि वे सत्ता और विपक्ष दोनों में सम्मानित रहे।
उनकी राजनीति में कोई ‘अंतर्विरोध’ नहीं था, बल्कि ‘विकल्पों का विवेकपूर्ण संतुलन’ था। वे जहां होते, वहीं अपनी विचारधारा से समझौता किए बिना, नीति और नैतिकता के साथ खड़े रहते।
जब लोहिया से टकरा गए थे तिवारी
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि तिवारीजी ने एक बार डॉ. राममनोहर लोहिया तक को चुनौती दे दी थी। लोहिया ने एक सेठ रामरतन को टिकट देना चाहा, पर तिवारी जी ने लोकतंत्र की दुहाई देते हुए भगवदत्त शास्त्री को मैदान में उतारा। लोहिया नाराज़ हुए, पर जनता ने तिवारी की बात मानी। यह सिर्फ चुनावी जीत नहीं थी, यह जनमत और जनतंत्र की विजय थी।
विधानसभा में गूँजा था उनका नाम, बीबीसी तक ने किया कवरेज
तिवारी जी का विधानसभा में दिया गया ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट पर भाषण आज भी संसदीय इतिहास में मिसाल है। उनकी वाक्पटुता, तथ्यपरकता और अधिकारिक भाषा की पकड़ इतनी प्रभावशाली थी कि बीबीसी ने तक उनकी स्पीच को कवरेज दी।
उनके वक्तव्यों में सिर्फ आवाज़ नहीं थी, वहाँ इतिहास की गरिमा और संविधान की आत्मा बोलती थी।
स्पीकर नहीं, सदी के सबसे सशक्त संसदीय मार्गदर्शक
तिवारीजी जब विधानसभा अध्यक्ष बने, तो उन्होंने इस पद की परिभाषा बदल दी। मोटी चमड़ी, खुली ज़ुबान यही उनका मंत्र था। विपक्ष को सबसे अधिक संरक्षण देने वाले वे शायद पहले स्पीकर थे।
आज मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के अनेक विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री उनके संसदीय अनुशासन और व्यवहार के प्रशिक्षु रह चुके हैं चाहे वे नरोत्तम मिश्रा हों या डॉ. रमन सिंह।
राजनीति में रिश्ते नहीं, सिर्फ सिद्धांत
इमरजेंसी के दौरान, जब उनके पुराने समाजवादी साथी जेल में थे, तब भी उन्होंने कांग्रेस की विचारधारा से विचलन नहीं किया। जो कांग्रेस के विरोधी हैं, उन्हें सड़ना ही चाहिए जेल में, यह बात वे बिना झिझक कहते थे। उनकी ऐसी दृढ़ता और वैचारिक स्पष्टता ने ही उन्हें राजनीति का ‘सिद्धांतवादी योद्धा’ बना दिया। ध्यान रहे, यह जीवन एक खुली किताब था।
श्रीनिवास तिवारी को समझने के लिए उन्हें पढ़ना नहीं, जीना पड़ता है। वे किसी विचारधारा के अनुयायी नहीं थे, वे स्वयं एक विचारधारा बन चुके थे। उनके जीवन की हर परत, हर प्रसंग, हर निर्णय में एक गहराई थी।
वे मंत्री रहे, स्पीकर रहे, विपक्ष में रहे पर हर भूमिका में संविधान के प्रहरी और जनता के प्रतिनिधि बनकर खड़े रहे। एक विराम, लेकिन अधूरी कहानी
श्रीनिवास तिवारी अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार, उनके निर्णय, उनकी साहसिकता, राजनीतिक सूझबूझ और जनता के लिए समर्पण यह सब आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक रहेगा।
राजनीति में शायद अब तिवारी जैसे लोग न मिलें, लेकिन उम्मीद है कि कभी न कभी, कहीं न कहीं कोई नौजवान उनके विचारों की चिंगारी लेकर निकलेगा और तब फिर कोई कहेगा, यूँ ही कोई नहीं बन जाता जननायक।


