नेपाल, 2025
कई दशक पुरानी राजशाही अब भले ही समाप्त हो गई हो, लेकिन सत्ता और राजनीतिक व्यवस्था से उपजी उन गहराईयों में दबे हुये असंतोष की पुरानी आग कभी बुझी नहीं थी। सोशल मीडिया पर नियमित भ्रष्टाचार, नौकरियों की कमी, पॉलिटिशियनों के बच्चों की अमीरी और राजनेताओं की ढीली जवाबदेही से निराश जनता ने अपनी आवाज़ उठाई। ये असंतोष धीरे-धीरे पनप रहा था जो सोशल मीडिया प्रतिबंध के बाद अचानक भड़क उठा, जैसे कोई पुराने स्रोत से अचानक बनी आग।
क्या हुआ ताज़ा घटनाएँ
सोशल मीडिया प्रतिबंध
सरकार ने 26 प्रमुख प्लेटफार्मों जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब आदि पर यह कह कर प्रतिबंध लगाया कि उन्होंने सरकार के बताए नियमों के अनुसार पंजीकरण नहीं किया और वैधानिक निगरानी और नियंत्रण से बाहर थे।
जन आंदोलन
युवा वर्ग (Gen Z) जिन्होंने अपनी दैनिक ज़िंदगी और संघर्ष ज़्यादातर ऑनलाइन साझा किये होते थे अब सड़कों पर उतर आये। उनकी मांग थी लोकतंत्र, पारदर्शिता, भ्रष्टाचार का अंत, आवाज़ की आज़ादी।

इन नारों ने सोशल मीडिया प्रतिबंध को टटोल कर देखा और उसे सिर्फ अंतिम टिका माना समस्या तो बसे समय की थी।
संघर्ष और हिंसा
प्रधानमंत्री निवास और संसद भवन के सामने विरोध-प्रदर्शनों में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव हुआ। पुलिस ने बल प्रयोग किया: रबर बुलेट्स, आंसू ग़ैस, वाटर कैनन। कई स्थानों पर झड़पें हुईं। हताहतों की संख्या बढ़ी लगभग 19 लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए।
प्रतिबंध समाप्ति
बढ़ते दबाव, देशव्यापी विरोध और अंतरराष्ट्रीय आलोचना के बाद सरकार ने सोशल मीडिया प्रतिबंध वापस ले लिया।
गहराई में ये बातें क्यों जम गई थीं पृष्ठभूमि में
भ्रष्टाचार का तंत्र: नेपाल में पिछले कई सालों से राजनीतिक नेताओं के पोते-पोते की खनन, जमीन-हिस्से, सरकारी हितों में सौदेबाज़ी आदि की बातें आम थीं। ये बातें सोशल मीडिया पर अक्सर सामने आती थीं और लोगों की नाराज़गी बढ़ाती थीं।
आर्थिक अस्थिरता: युवा बेरोज़गार, महंगाई, जीवन स्तर में गिरावट ये सभी असंतोष के कारण बने। जब लोगों की रोज़मर्रा जिंदगी प्रभावित होती है, तो प्रतीकात्मक चीज़ें जैसे सोशल मीडिया पर सेंसरशिप बड़ी असहमति पैदा कर देती हैं।
विकास और सत्ता का केंद्रीकरण: सोच था कि लोकतंत्र आया, लेकिन सत्ता कुछ ही परिवारों और राजनैतिक क्लानों के हाथों में केंद्रित हो गई। जनता की अपेक्षा यही थी कि लोकतंत्र में आम नागरिकों को न्याय, विकास, अवसर मिलेंगे लग रहा है कि ये अनुभव कहीं खो गया है।
राजशाही और उसके बाद की निराशा: राजशाही समाप्त हुई, लेकिन उसके बाद जो राजनीतिक व्यवस्था आई, वह जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रही। इसी बीच, राजशाही समर्थक कुछ समूहों में पुनरुत्थान की बातें भी सुनाई दे रही हैं, ये संकेत हैं कि लोग किसी प्रणाली से ज़्यादा क्रियाशीलता, न्याय और भरोसे की अपेक्षा कर रहे थे।
राह आगे की क्या संभव है ये संघर्ष लोकतांत्रिक सुधार में बदले?
सरकार को चाहिए कि वह पारदर्शी जांच करे, जिन लोगों ने ज़िंदगी गंवाई या घायल हुए उनके लिए न्याय सुनिश्चित करे।
सभी वर्गों विशेष कर युवाओं को शामिल करने वाली नीति बनायी जाए शिक्षा, नौकरियाँ, स्वरोजगार आदि ताकि उनका भरोसा लोकतंत्र में बना रहे।
सोशल मीडिया नीति ऐसी हो कि अभिव्यक्ति की आज़ादी बची रहे, आलोचना न घटी हों, सेंसरशिप केवल जब संवाद सार्वजनिक शांति या अपराध से संबंधित हो तभी सीमित हो।
राजनीतिक दलों और नेतृत्व को यह सोचना होगा कि सत्ता का दावा करना ही काफी नहीं – नेतृत्व का जवाबदेही, जनता की उम्मीदों के अनुरूप काम करना ज़रूरी है।
नेपाली ‘जेनरेशन जेड’ ने जिस तरह सोशल मीडिया प्रतिबंध के खिलाफ आवाज उठायी, वह सिर्फ एक वर्तमान घटना नहीं थी यह वर्षों से संचित निराशा और अन्याय का फटप्रद नतीजा था। यह संघर्ष याद दिलाता है कि जब राज्य सामाजिक सहमति, विश्वास और सहभागिता खो देता है, तो प्रतीकात्मक दबाव जैसे सोशल मीडिया प्रतिबंध ही ऐसी चिंगारी बन जाते हैं, जो बड़े रूप में फट पड़ती है।


