रीवा।
पापी पेट के लिए धूप-बारिश सहते हैं…बर्तन बेचते फिरे शहर-शहर, फिर भी कहते हैं , बच्चे पालने हैं साहब!!
ना धूप सताती है, ना बरसात डराती है, साहब… बच्चे पालने हैं, इसलिए चलना तो पड़ेगा ही…यह कहते हुए आंखों में नमी लिए वह बर्तन वाले चुप हो जाते हैं।
रीवा ही नहीं, पूरे प्रदेश में मोटरसाइकिल पर स्टील के बर्तन लेकर घूमने वाले ये मेहनतकश लोग रोजान सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय करते हैं। किसी के कंधे पर बूढ़े माँ-बाप की जिम्मेदारी है, तो किसी की गोद में दूधमुंहे बच्चे। घर-घर जाकर स्टील की थाली, गिलास, कटोरी बेचते हैं – कभी कोई खरीद लेता है, तो कभी पूरा दिन खाली हाथ लौटना पड़ता है।
कभी-कभी तो एक रुपया भी कमाई नहीं होती साहब।
फिर भी कहते हैं चलो ठीक है, जितना नसीब में था मिला।
इनकी परेशानी दूसरों से अलग है न कोई तय दुकान न ठिकाना। धूप हो या तेज बारिश, ये बिना किसी शिकायत के निकल पड़ते हैं, क्योंकि पेट तो रोज़ ही जलता है।
बड़ी-बड़ी योजनाओं और विकास के नारों के बीच ये वो लोग हैं जिनके संघर्ष को कोई नहीं सुनता। न इनके लिए कोई राहत योजना है, न सुरक्षा। सड़क पर मोटरसाइकिल से लदी भारी बर्तन की थैलियाँ और पीठ पर जिम्मेदारियों का बोझ यही इनका जीवन है।
हम तो रोज दुआ करते हैं कि एक दिन ऐसा आए जब घर से दूर भटकना न पड़े।एक महिला विक्रेता की आवाज़ भर्रा जाती है। ये खबर नहीं, सवाल है। लेकिन ऐसा होता नहीं।
क्या कभी इन मेहनतकश हाथों की मेहनत को भी सम्मान मिलेगा?
क्या शासन-प्रशासन को इन आवाज़ों की सुनवाई नहीं करनी चाहिए?


