ईंट भट्ठे की तलाश में पहुंचे थे, मिल गया मौर्यकाल का बौद्ध स्तूप देउर कोठार की ऐतिहासिक खोज
43 साल पहले डॉ. फणीकांत मिश्रा ने की थी अद्भुत खोज, आज भी उपेक्षा झेल रहा है प्राचीन बौद्ध स्थल
रीवा, मप्र | विशेष रिपोर्ट
वर्ष 1982 की एक सामान्य सी शाम, जब पुरातत्ववेत्ता डॉ. फणीकांत मिश्रा रीवा क्षेत्र में कुछ खास नहीं खोज पाए थे, तब उनके मन में निराशा घर कर गई थी। लेकिन उसी दिन एक ऐसी ऐतिहासिक खोज हुई जिसने भारतीय पुरातत्व के मानचित्र पर देउर कोठार नामक स्थल को अमिट कर दिया।
भोपाल में सहायक पुरातत्व अधिकारी रहे डॉ. मिश्रा के पास उस समय रीवा क्षेत्र का प्रभार था। उनका परिवार भी पुरातात्विक पृष्ठभूमि से जुड़ा था, जिससे यह क्षेत्र उनके लिए केवल काम नहीं, एक जुनून था। एक थकाऊ दिन के बाद वे त्यौंथर रेस्ट हाउस में आराम कर रहे थे, जब स्थानीय निवासी अजीत सिंह ने उन्हें एक रहस्यमयी जगह के बारे में बताया। देउर कोठार, जहां ईंट भट्ठे जैसे टीले थे, जिनका रहस्य किसी को समझ नहीं आ रहा था।
ट्रैक्टर में सवार होकर गए
थकान के बावजूद, डॉ. मिश्रा में जैसे नई ऊर्जा का संचार हुआ। अजीत सिंह के ट्रैक्टर में सवार होकर वे रात 9 बजे सुनसान जंगलों के बीच स्थित उस स्थल पर पहुंचे। एक टॉर्च की रोशनी में जब उन्होंने ईंटों के बने गोलाकार टीले देखे, तो उनकी आंखें चमक उठीं। यह वही था जिसकी उन्हें तलाश थी । मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप।

पहली रात की खोज से मिली ऐतिहासिक सुबह
रात अधिक होने के कारण दल को लौटना पड़ा, लेकिन डॉ. मिश्रा की नींद उस रात गायब हो गई। अगली सुबह वे फिर वहां पहुंचे और स्थानीय लोगों से जानकारी ली। किसी ने भी नहीं बताया कि अंग्रेजी शासन काल में कोई पुरातत्वविद यहां आया था। यह जानकर वे और उत्साहित हुए।
डॉ. मिश्रा ने तत्काल एक चार सदस्यीय टीम गठित की और स्थल के वैज्ञानिक परीक्षण शुरू कराए। परिणाम चौंकाने वाले थे। 1996 में इस स्थल को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया गया और 122 एकड़ क्षेत्र को राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज कराया गया।
खुदाई में निकले अशोककालीन स्तूप, ब्राह्मी लिपि और लोटस की नक्काशी
1999-2000 के बीच खुदाई के दौरान यहां से कई महत्वपूर्ण पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए। जैसेअशोककालीन स्तूप,मौर्यकालीन पिलर,ब्राह्मी लिपि के शिलालेख,कमल (लोटस) की आकृतियाँ,गुप्तकालीन 32 पत्थरों से बने स्तूप,प्राचीन जल प्रबंधन प्रणाली वाटर चैनल,सैलाश्रय (शैलाश्रित कक्ष)
यह सब इस स्थल को बौद्ध धर्म और मौर्यकालीन स्थापत्य कला का अत्यंत महत्वपूर्ण उदाहरण बनाता है।
उपेक्षा की शिकार है ऐतिहासिक धरोहर
आज भी देउर कोठार को वह संरक्षण और विकास नहीं मिला, जिसकी यह हकदार है। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से लोग पिकनिक के लिए तो यहां आते हैं, लेकिन इस स्थल को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की जो योजना और दृष्टिकोण होना चाहिए, वह कहीं खो गया है। सरकार ने बजट तो जारी किया, पर जमीनी स्तर पर विकास कार्य स्पष्ट नहीं दिखते।
और अंत में
डॉ. फणीकांत मिश्रा की यह खोज केवल एक पुरातात्विक सफलता नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। देउर कोठार को लेकर जो संभावनाएं हैं, यदि उन्हें सही दिशा दी जाए, तो यह स्थल न केवल शोधकर्ताओं, बल्कि पर्यटकों के लिए भी एक आकर्षण का केंद्र बन सकता है।


